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जमानत क्या होती है जमानत के कितने प्रकार हैं? By वनिता कासनियां पंजाब आज हम आपको इस पोस्ट में एक बहुत ही बढ़िया और बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी बताएंगे यह जानकारी हम सभी के लिए जाना बहुत ही जरूरी है जैसा कि हम सभी जानते हैं जब कोई इंसान किसी तरह अपराध करता है तो उसको पुलिस जेल ले जाती है और फिर वहां से उस आदमी को जमानत पर बाहर निकाला जाता है लेकिन कई बार ऐसे केस भी होते हैं जिसमें अपराधी को जेल जाने से पहले ही जमानत मिल जाती है.लेकिन बहुत से केस ऐसे भी होते हैं जिममें अपराधी को जमानत के ऊपर छोड़ा जाए या ना छोड़ा जाए यह निर्णय अदालत करती है.जमानत या बेल कितने प्रकार की होती हैं जमानत पर अपराधी को छोड़ने के लिए क्या क्या प्रोसेस होता है जमानत बांड क्या होता है तो इन सभी चीजों के बारे में आज हम आपको इस पोस्ट में पूरी जानकारी विस्तार से देंगे औरहम आपको इन सभी चीजों के बारे में एक-एक करके अच्छे से बताएंगे तो आप इस जानकारी को पूरा और अंत तक जरूर पढ़ें ताकि आपको अच्छे से समझ में आए.जमानत किसे कहते हैंजब कोई इंसान किसी अपराध के कारण जेल जाता है तो उस इंसान को जेल से छुड़वाने के लिए अदालत या पुलिस से जो आदेश दिया जाता है उसकी आदेश को जमानत/बेल कहते हैंजमानत कितने प्रकार की होती हैजमानत मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है1. Bailable Offence Bail – किसी भी तरह के जमानती अपराध में अभियुक्त की जमानत स्वीकार करना पुलिस अधिकारी और कोर्ट का काम होता है. जैसे यदि कोई इंसान किसी इंसान को जानबूझकर चोट पहुंचाता है. या कोई इंसान किसी तरह के मानहानि करता है तो यह सभी जमानतीय अपराध होते हैं. वैसे तो जमानतीय अपराध में जेल से ही बेल मिल जाती है. जिनमें लेकिन कई बार केस कोर्ट में भी चला जाता है तो फिर अभियुक्त को कोर्ट में बेल की अर्जी देनी होती है और कोर्ट को बेल देनी ही पड़ेती है.2. Non Bailable Offence Bail – जब कोई किसी तरह का गंभीर मामला होता है तो उसमें गैर जमानती अपराध बनाया जाता है और इस दौरान जमानत स्वीकार करना है या नहीं करना कोर्ट के ऊपर निर्भर करता है.चोरी, मर्डर गैर जमानती अपराधों में आते हैं. और इन सभी मामलों में अपराधी को जमानत आईपीसी धारा 437 के अंतर्गत मिलती है.3.अग्रिम यानी एंटीसिपेट्री बेल – एंटीसिपेट्री जमानत कोर्ट का वो आदेश होता है जिसमें किसी भी इंसान को किसी अपराध के मामले में गिरफ्तार करने से पहले ही जमानत मिल जाती हैं. किसी भी तरह के गैरजमानती अपराध में अभियुक्त को यदि गिरफ्तार होने की आशंका हो तो वह गिरफ्तार होने से पहले ही जमानत के लिए अर्जी दे सकता है. और कोर्ट सुनवाई के बाद एंटीसिपेट्री बेल दे देती है यह जमानत पुलिस की जांच होने तक जारी रहती है. और एंटीसिपेट्री की बेल आईपीसी धारा 438 के अंतर्गत आती है.बेल Bond क्या होता हैजब किसी आदमी को किसी अपराध के लिए जेल हो जाती है तो उस आदमी को जेल से जमानत पर छुड़वाने के लिए कुछ प्रॉपर्टी या किसी चीज को देने का वादा किया जाता है. और उसी चीज के आधार पर अपराधी को जमानत मिलती है. और उसको ही बेल बांड कहा जाता है. और जब किसी अपराधी को जमानत पर किसी प्रॉपर्टी या किस चीज को देने के वादे के आधार पर छोड़ दिया जाता है तो उससे यह साबित होता कि अपराधी कोर्ट में सुनवाई के दौरान जरूर हाजिर होगा.और अगर कोई अपराधी जमानत मिलने के बाद सुनवाई के दौरान कोर्ट में हाजिर नहीं होता है तो जिस आदमी ने उसकी जमानत ली थी वह आदमी उसको पकड़ कर पुलिस को सोपेगा और अगर वह ऐसा नहीं कर पाता है तो जमानत में दी गई राशि कोर्ट में जमा करवा ली जाएगी और उस आदमी की जमानत भी जप्त कर ली जाएगी.कई जगह पर दिल्ली राजस्थान जैसे राज्यों में जमानत के लिए एक ही जमानती देना होता है. लेकिन कई दूसरे राज्य जैसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश में लोगों को जमानती के ऊपर एक गवाह भी देना होता है और वह यह कहेगा कि वह अपराधी को जानता है और वह उसका तरह से गारंटर होगा क्योंकि अगर अपराधी जमानत के बाद भाग जाए तो वही आदमी वही उसको कोर्ट के सामने लाएगा और इसमें वह सक्षम भी है लेकिन इस दौरान गवाह पर कोर्ट के द्वारा किसी भी तरह का कोई दबाव नहीं होता है और ना ही उसका किसी तरह का नुकसान भरेगा.जमानत मिलने के बाद की शर्तेंजब किसी अपराधी को कोर्ट के द्वारा जमानत दे दी जाती है तो वह आदमी जेल से बाहर तो घूम सकता है लेकिन कोर्ट के द्वारा इसके साथ ही उसके ऊपर कई शर्तें भी लगाई जाती है. और यह सभी शर्तें बेल बांड से अलग होती है जैसेआप रिहा होने के बाद शिकायत करने वाले को परेशान नहीं करेंगे.रिहा होने के बाद आप किसी भी तरह के सबूत या गवाह को मिटाने की कोशिश नहीं करेंगे.इसके अलावा अपराधी के ऊपर कोर्ट विदेश में जाने की भी पाबंदी लगा सकता है.और इसके साथ साथ अपराधी का किसी अपने शहर में रहना या अपने एरिया में रहने रहना भी तय कर सकता है.कई बार अपराधी को हर रोज पुलिस स्टेशन में आकर हाजिरी लगाने भी फिक्स कर सकता है.और ऐसा न करते पाए जाने पर कोर्ट आपकी जमानत को रद्द भी कर सकता है.बहुत से केस में ऐसा पाया जाता है कि शिकायत करने वाला कोर्ट में झूठी शिकायत कर देता है कि अपराधी रिहा होने के बाद परेशान कर रहा है या गवाह या सबूत को मिटाने की कोशिश कर रहा है जिससे अपराधी की जमानत रद्द की जा सकती है तो ऐसे मामलों में अपराधी को खुद को बचना होगा.जमानत देने के मापदंड क्या होते हैंअदालतों में जमानत देने के अलग-अलग मापदंड होते हैं कई अदालतें यह देखती है कि अपराध की गंभीरता कितनी है और कई अदालतें यह देखती है कि क्या अपराधी को जमानत मिलने के बाद वह सबूतों और गवाहों को परेशान करेगा या उनको मिटाने की कोशिश करेगा.मान लीजिए किसी गंभीर अपराध में 10 साल की सजा का प्रावधान किया गया है तो उस केस में पुलिस को 90 दिन के अंदर Charge Sheet दाखिल करनी होती है. और अगर पुलिस 90 दिन के अंदर चार्ज सीट दाखिल नहीं कर पाती तो अपराधी जमानत का अधिकारी होता हैकोई भी आरोपी अधिकार के तौर पर जमानत नहीं मांग सकता है उसके लिए आवेदन देना होता है तो उसके बाद कोर्ट यह देखता है कि अपराध की गंभीरता कितनी है और दूसरा यह कि जमानत मिलने के बाद अपराधी किसी तरह के गवाहों को डराया धमकाया या नहीं या अपने खिलाफ सबूतों को मिटाएगा या उनको नष्ट नहीं करेगा.कोर्ट से जमानत कैसे ली जाती हैकिसी भी अपराधी को जमानत लेना बहुत मुश्किल काम होता है इसके लिए आप को एक आवेदन देना होता है और सबसे पहले आपको आवेदन में लिखना होगा की शिकायत करने वाले ने आप के खिलाफ झूठी FIR क्यों लिखवाई है और इसका कारण आपको जरूर बताना होगा क्योंकि कोर्ट आपको मुजरिम या अपराधी समझती हैं. तो कोर्ट को यह बताना बहुत ही जरूरी होगा कि आप के खिलाफ FIR क्यों करवाई गई है दूसरा जो आपके खिलाफ FIR करवाई गई है. उसमें आपको गलतियां निकालना चाहिए. ताकि किसी भी तरह से वह आपके खिलाफ FIR सच साबित न हो और अगर आपके पास किसी भी तरह का कोई सबूत हो तो उसका सहारा भी आप ले सकते हैं. और गिरफ्तारी होने के बाद पुलिस छोटे अपराधों में 60 दिन में और गंभीर अपराधों में 90 दिन के अंदर चार्ज सीट दाखिल करनी होती है. और अगर पुलिस 90 दिन के अंदर किसी भी तरह की कोई चार्ज सीट दाखिल नहीं कर पाती है तो आपको जमानत मिल सकती है और अगर आपका पहले से कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है तो भी आप जल्दी से जमानत ले सकते और आप जमानत लेने के लिए टैक्स रिटर्न या आपकी फैमिली आपके ऊपर डिपेंड है या आप कम उम्र के हैं इस तरह की चीजों का भी सहारा ले सकते हैं.जमानत मिलने में सबसे बड़ी रुकावट सरकारी वकील जांच करने वाले पुलिस अधिकारी होते हैं. अगर यह आपकी जमानत का विरोध ना करें तो आपको जल्द ही जमानत मिल सकती है. और लगभग ज्यादातर जमानत दिलाना आप के वकील के हाथ में होता है. अगर आपका वकील अच्छा है और सही तरीके से आप के केस को जज को समझा पाता है. तो आपको जल्द ही जमानत मिल जाएगी और गैर जमानती है केस में किस को जमानत देनी चाहिए और किसको नहीं देनी चाहिए यह कोर्ट की निर्णय करती है.जमानत का विरोध कैसे करेंकई बार हमारे सामने ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि हम अपराधी को सबक सिखाने के लिए उसके बेल को रद्द करवाना चाहते हैं तो उस स्थिति में जमानत को रद्द कैसे करवाया जाता है.यदि बेल का विरोध करने वाली एक लड़की है. तो कोर्ट की तरफ से एक लैटर आएगा और यदि विरोध करने वाला लड़का है तो आपको कोर्ट में एक एप्लीकेशन लगानी होती हैं. उस एप्लीकेशन में लिखना होता है कि जब भी आरोपी को जमानत मिली तो उसकी सूचना आपको मिलनी चाहिए ताकि आप उसका विरोध कर सकें. और जब भी आप कोर्ट में बेल के विरोध के लिए जाते हैं तो आपको अपने मेडिकल के जो भी पेपर होते हैं वह अपने साथ ले जाने चाहिए और अपने सारे सबूत भी अपने साथ ले जाना चाहिए. आपसे कोर्ट में सवाल पूछे जाएंगे और उनका आपको सही और बिल्कुल अच्छे तरीके से जवाब देना होगा. ताकि कोर्ट को आपके ऊपर विश्वास हो यदि फिर भी अपराधी को जमानत मिल जाती है तो आप कोर्ट में शिकायत कर सकते हैं कि आरोपी आपको परेशान कर रहा है और सबूत और गवाह को मिटाने की कोशिश कर रहा है. यदि फिर भी कोर्ट अपराधी को जमानत दे देता है.तो आप ऊपर की कोर्ट में उसके बेल खारिज करवाने के लिए एप्लीकेशन लगा सकते हैं सरकारी वकील और पुलिस अधिकारी के ऊपर आपको पूरी नजर रखनी चाहिए. यदि कोई वकील या पुलिस अधिकारी जमानत दिलाने में मदद करता है. तो आप उनकी शिकायत भी कर सकते हैं.

जमानतभूमिकापरिचयकिशोर की जमानत By वनिता कासनियां पंजाब भूमिका जमानत का अर्थ है किसी आरोपी को जाँच या पेशी चलते हुए छोड़ा जाना और साथ ही भविष्य में चलने वाली पेशियों में उसकी मौजूदगी करना। दंड प्रक्रिया संहिता अपराधों को जमानती या गैर जमानित अपराधों की श्रेणी में विभाजित करती है। कोई अपराध जमानती है या नहीं यह दंड प्रक्रिया संहिता की प्रथम सारणी या विशेष अपराध के लिए बने स्थानीय या विशेष कानूनों के अंतर्गत तय होता है। जमानती अपराधों में, जमानत पाना आरोपी का अधिकार है, और यह जमानत किसी पुलिस अधिअक्र या जिस न्यायालय के समक्ष पेश किया गया है, उसके द्वारा दिया जा सकता है। गैर जमानती अपराध में जमानत अधिकार नहीं होता और और तथ्यों व परिवेश के आधार पर हरेक मामले में न्यायालय जानत को स्वीकार या अस्वीकार करेगा। किसी अपराध की गंभीरता व आरोप पक्ष के गवाहों को धमकाने या बिगाड़ने की संभावना, कुछ ऐसी परिस्थितियाँ दी गई हैं जिनपर यदि गैर जमानती अपराध हो तो भी जमानत दिया जाता है, जैसे यदि आरोपी महिला या बीमार या उम्रदराज या कमजोर हो तो।परिचयकिशोर कानून में जमानत को लेकर बिल्कुल अलग समझ है। विभिन्न बाल कानूनों के लागू होने के बाद से किशोर कानूनों के अंतर्गत है, जबतक कि कुछ बताए गए मामलों में छोड़ा जाना बच्चे को नुकसान पहुंचा सकता हो, उदहारण के लिए बी सी ए 1948 के अंतर्गत किसी गारी जमानती अपराध को करने वाला किशोर पुलिस अधिअक्र या न्यायालय द्वारा छोड़ा जा सकता है जब तक ऐसा न हो कि उसे जमानत पर छोड़ना उसे किसी धुरंधर अपराधी के संपर्क में ला सकता है या उसे नैतिक खतरे हैं या उसे छोड़ा जाना न्याय की हार हो सकती है। किशोर को जमानत पर छोड़ना आवश्यक है चूंकि यह उसका जीवन बर्बाद करने से रोक सकता है।1986 के कानून की धारा 18 किशोर की जमानत व हिरासत से निपटती है और उसे नीचे दिया गया है।(1) जब कोई जमानती या और जमानती अपराध का आरोपी हो अगर किसी किशोर को गिरफ्तार करके किशोर न्यायालय के समक्ष पेश को गिरफ्तार करके किशोर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाए तो ऐसे व्यक्ति को दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 का 2) या किसी अन्य किसी कानून में दिए किसी भी प्रावधान को बिना माने, मुचलके के साथ या बिना जमानत पर छोड़ दिया जाएगा पर यदि कोई पुख्ता आधार हो कि उसके छूटने से वह किसी जाने माने अपराधी के संपर्क में आ सकता है या उसे नैतिक खतरे हो सकते हैं या उसे छोड़ना न्याय के विरूद्ध होगा तो उसे नहीं छोड़ा जाएगा।(2) जब ऐसे किसी गिरफ़्तारी व्यक्ति को उपधारा (1) के अंतर्गत नहीं छोड़ा जाता तो पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी उसे निगरानी गृह या ऐसी किसी अन्य सुरक्षित जगह रखे जाने की व्यवस्था करेगा, जो मान्य हो (पर पुलिस थाने या जेल में नहीं) जबतक कि उसे किसर न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया जाता।(3) जब ऐसा कोई उप धारा (1) के अंतर्गत किशोर न्यायालय द्वारा जमानत पर नहीं छोड़ा जाता तो उसे जेल भेजने के बजाय, न्यायालय उसे निगरानी गृह या किसी सुरक्षित स्थान पर तब तक के लिए भेजने का आदेश देगी जब तक उसके मामले की जाँच जारी रहेगी।इसलिए, 1986 के कानून के अंतर्गत भी किसर नयायालय के लिए भी किशोर को कुछ खास बताई गई स्थितियों के अलावा, जमानत पर छोड़ना अनिवार्य था। यह प्रावधान यह भी स्पष्ट करता है कि किशोर को किसी भी हाल में पुलिस लॉक - अप या जेल में नहीं रखा जा सकता। 2000 के कानून में भी ऐसा ही प्रावधान है जमानत के लिए जिसमें छोटे सुधार किए गए हैं, जैसे, (1) किसी किशोर को जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकता यदि ऐसा छोड़ा जाना उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरे में डालता हो और (2) पुलिस द्वारा ऐसे किशोर को निगरानी गृह में छोड़ा जाना अनिवार्य हो न कि सुरक्षित स्थान पर।जमानत के प्रावधान कागजों पर ही रह गए: सच्चाई इससे काफी अलग थी, किशोरों की एक बड़ी संख्या को या तो जमानत मिली ही नहीं या फिर वे जमानत ले नहीं पाए क्योंकि बोर्ड काफी रूढ़िवादी थे और किशोर कानून के मूलतत्व को नन्हीं समझते थे। हालांकि जमानत अनिवार्य था पर फिर भी नहीं दिया गया ऐसे आधार, पर जैसे अपराध की गंभीरता या यह मान्यता होना कि किशोर भाग जाएगा, जो कि वयस्कों के मामलों में लागू होते हैं पर किशोरों के मामलों ने नहीं। इसके अलावा, किशोर न्यायालय या किशोर न्याय बोर्ड, जमानत का आदेश देते वक्त यह शर्त रखते थे कि किशोर मुचलके के तौर पर बड़ी रकम रखे। हालाँकि कानून कहता है। कि “मुचलके के साथ या बगैर” चूंकि ज्यादातर किशोरों के परिवार या संस्थागत सहयोग नहीं होते, वे मुचलका देने के लिए किसी व्यक्ति को नहीं ढूंढ पाते और इसलिए जमानत हासिल नहीं कर पाते, इसके अलावा, बोर्ड इस बात पर जोर देते हैं कि किशोर के माता-पिता या अभिभावक जमानत की अर्जी दें अरु जमानत पर छोड़े जाने पर किशोर की जिम्मेदारी लें, और जिनके पास दोंनो में से कोई नहीं होते इस अनिवार्य प्रावधान को हासिल नहीं कर सकते है, कुछ किशोर जिनके पास पारिवरिक सहयोग होता है वे जमानत इसलिए नहीं ले पाते क्योंकी उनेक पास वकील के सेवा लेने के लिए वित्तीय संसाधन नहीं होते, इसलिए किशोर, निगरानी गृहों में अपनी जाँच पूरी होने तक पड़े रहते हैं, इस बात के बावजूद कि कानून उन्हें जल्द से जल्द जमानत पर छोड़ना चाहता है।इस विश्लेषण को नोट करते हुए 2000 के कानून में किए गए 2006 के संशोधनों द्वारा यह डाला गया है कि जब किशोर को जमानत पर रिहा किया जाए तो उसे “ निगरानी अधिकारी या किसी उपयुक्त संस्था या उपयुक्त व्यक्ति की देख रेख में रखा जा सकता है।”किशोर की जमानत(1) जब कोई व्यक्ति जो किसी जमानती या गैर जमानत अपराध का आरोपी हो, और किशोर हो और उसे बोर्ड के समक्ष पेश किया जाए तो उसे दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (1974 का 2) या किसी अन्य कानून के अंतर्गत दिए प्रावधानों को न मानते हुए, जमानत पर मुचलके सहित या बगैर रिहा किया जाएगा और निगरानी अधिकारी या किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति की देखरेख में रखा जाएगा पर अगर इस बात के पुख्ता आधार हो कि उसका छोड़ा जाना उसे किसी जाने माने अपराधी के संपर्क में ला सकता है या उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरा हो सकता है या उसका छोड़ा जाना न्याय के विरूद्ध हो तो उसे रही नहीं किया जाएगा।(2) जब गिरफ्तार किया गया कोई ऐसा व्यक्ति उप धारा (1) के अंतर्गत पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा छोड़ा नहीं जाता है तो वह अधिकारी यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसे किशोर को सिर्फ किसी निगरानी गृह में रखा जाएगा जब तक कि उसे बोर्ड के समक्ष पेश नहीं किया जाता।(3) जब ऐसा कोई व्यक्ति बोर्ड द्वारा उप धारा (1) के अंतर्गत रिहा नहीं किया जाता तो बोर्ड उसे जेल में भेजने के बजाए उसे आदेश में दिए समय के लिए किसी निगरानी गृह या किसी सुरक्षित स्थान पर रखने के आदेश देगे जब तक कि उसकी जाँच चल रही होगी।” यह उम्मीद है कि संशोधन से ज्यादा बड़ी संख्या में किशोरों को जमानत पर छोड़ा जाएगा: वे जिनके माता – पिता, अभिभावक नहीं है या जो मुचलका नहीं दे सकते वे कानून में डाली गई इस ने हिस्से का फायदा उठा सकेंगे। कोई उपयुक्त संस्था या व्यक्ति जो किशोर का अस्थाई रूप से ध्यान रखने को तैयार हों वे जाँच के दौरान बोर्ड के समक्ष जमानत की अर्जी दे सकते हैं।किशोर न्याय को किशोर के लिए जमानत की अर्जी का इंतजार नहीं करना चाहिए, उन्हें उपयुक्त शर्तों पर खुद अपनी ओर से जमानत देना चाहिए।बीजिंग नियमों में यह प्रावधान है कि पेशी के दौरान “हिरासत को आखिरी विकल्प की तरह रखना चाहिए” और यह यथासंभव कम से कम समय के लिए होना चाहिए और “जब भी संभव हो, पेशी के दौरान हिरासत के बजाए वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए, जैसे की कड़ी निगरानी, गंभीर देख रेख आ किसी परिवार में रखा जाना या किसी शैक्षणिक व्यवस्था या गृह में रखा जाना।” क्लोज 10.2 में बीजिंग नियम यह प्रावधान देते हैं की किसी किशोर की गिरफ्तारी होने पर किसी न्यायाधीश या किसी संस्था को देरी के बिना किशोर के छोड़े जाने के मुद्दे पर सोचना चाहिए।भारतीय न्यायालयों ने बार बार यह फैसले दिया है कि किशोरों सिर्फ तीन आधारों पर ही जमानत देने से इंकार किया जा सकता है, और अपराध की गंभीरता या अपराध के सबूत इसमें शामिल नहीं हैं।vnitakasniapunjab05114@gmail.com

धारा 377 आईपीसी (IPC Section 377 in Hindi प्रकॄति विरुद्ध अपराध By वनिता कासनियां पंजाबRead In Englishआईपीसी धारा-377धारा 377 का विवरणभारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अनुसार,जो भी कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीवजन्तु के साथ प्रकॄति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छा पूर्वक संभोग करेगा तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिए कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिए भी उत्तरदायी होगा। स्पष्टीकरण--इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक संभोग संस्थापित करने के लिए प्रवेशन पर्याप्त है। लागू अपराधप्रकॄति विरुद्ध अपराध अपराध जैसे अप्राकृतिक रूप से संभोग करना।सजा - आजीवन कारावास या दस वर्ष कारावास + आर्थिक दण्ड।यह एक गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध है और प्रथम श्रेणी के मेजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।यह समझौता करने योग्य नहीं है। सेक्शन 377: प्रकृति विरुद्ध अपराधभारतीय दंड संहिता की धारा 377 "प्रकृति विरुद्ध अपराधों" से संबंधित औपनिवेशिक युग के कानून को संदर्भित करती है और एक ऐसे कानून के रूप में कार्य करती है जो "प्रकृति के कानून के खिलाफ" यौन गतिविधियों को अपराधी बनाती है। यह कानून एक पुरातन और प्रतिगामी कानून के रूप में माना जाता है, कार्यकर्ता और एल.जी.बी.टी. (लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर) समुदाय के सदस्य 2001 से अदालतों में इस समलैंगिकता विरोधी कानून को खत्म करने के लिए लड़ रहे थे।जनवरी 2017 में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय पीठ ने धारा 377 के समलैंगिकता के अपराधीकरण के 2013 के फैसले के पुनरीक्षण में धारा 377 को रद्द करने के लिए याचिकाओं पर सुनवाई करने का फैसला किया था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पांच-सदस्यीय पीठ ने इसकी शुरुआत की। धारा 377 क्या कहता है?भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में लिखा है, "जिसने भी स्वेच्छा से किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ प्रकृति के आदेश के खिलाफ संभोग किया है, उसे आजीवन कारावास, या किसी ऐसे विवरण के लिए कारावास के साथ दंडित किया जाएगा जो दस साल तक बढ़ सकता है। और जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा। " जबकि कानून स्पष्ट रूप से एल.जी.बी.टी. का उल्लेख नहीं करता है, हालाँकि "समान प्रकृति के विरुद्ध" का उल्लेख समान लिंग वाले यौन संबंधों के लिए किया गया है। क्या धारा 377 केवल समलैंगिकों से संबंधित है?भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में लिखा है, "जिसने भी स्वेच्छा से किसी भी पुरुष, महिला या जानवर के साथ प्रकृति के आदेश के खिलाफ संभोग किया है, उसे आजीवन कारावास, या किसी ऐसे विवरण के लिए कारावास के साथ दंडित किया जाएगा जो दस साल तक बढ़ सकता है। और जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा। " जबकि कानून स्पष्ट रूप से एल.जी.बी.टी. का उल्लेख नहीं करता है, हालाँकि "समान प्रकृति के विरुद्ध" का उल्लेख समान लिंग वाले यौन संबंधों के लिए किया गया है। क्या धारा 377 केवल समलैंगिकों से संबंधित है?यदि सीधे शब्दों में कहें तो, नहीं। जबकि धारणा यह है कि धारा 377 केवल समलैंगिकों को प्रभावित करती है, कानून राज्य को विषमलैंगिक यौन संबंध के मामलों पर भी हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है। इस तथ्य को देखते हुए कि अधिनियम में "प्रकृति के कानून के खिलाफ" के निहितार्थों में निजी तौर पर मौखिक और गुदा सेक्स की सहमति से होने वाली यौन गतिविधियां शामिल हैं, धारा राज्य को विषमलैंगिकों के बीच निजी सहमति से काम करने का अधिकार देती है। एल.जी.बी. टी. और मानवाधिकार कार्यकर्ता धारा 377 को निरसन क्यों करवाना चाहते थे?विरोधी धारा 377 कार्यकर्ताओं के तर्क का आधार मौलिक अधिकारों, समानता और एकान्तता के संवैधानिक रूप से निहित सिद्धांतों पर आधारित है।पिछली याचिकाओं में, कार्यकर्ताओं ने शीर्ष अदालत से "लैंगिकता का अधिकार", "यौन स्वायत्तता का अधिकार" और "यौन साथी की पसंद का अधिकार" घोषित करने के लिए भारतीय संविंधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार का हिस्सा बनने की प्रार्थना की थी। उन्होंने शीर्ष अदालत से भारतीय दंड संहिता की धारा 377, 1860 को असंवैधानिक घोषित करने की भी प्रार्थना की है। धारा 377 में वकील की जरुरत क्यों होती है?भारतीय दंड संहिता में धारा 377 का अपराध एक बहुत ही संगीन और गैर जमानती अपराध होता है, जिसमें आजीवन कारावास की सजा तक का प्रावधान दिया है, इस अपराध में एक अपराधी को अधिकतम 10 बर्षों तक के कारावास की सजा भी सुनाई जा सकती है। कारावास के दंड के साथ - साथ इस धारा में आर्थिक दंड का भी प्रावधान दिया गया है। ऐसे अपराध से किसी भी आरोपी का बच निकलना बहुत ही मुश्किल हो जाता है, क्योंकि आई. पी. सी. में कुछ ही अपराध ऐसे हैं, जिनमें आजीवन कारावास की सजा तक सुनाई जाती है, इसमें आरोपी को निर्दोष साबित कर पाना बहुत ही कठिन हो जाता है। ऐसी विकट परिस्तिथि से निपटने के लिए केवल एक वकील ही ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जो किसी भी आरोपी को बचाने के लिए उचित रूप से लाभकारी सिद्ध हो सकता है, और अगर वह वकील अपने क्षेत्र में निपुण वकील है, तो वह आरोपी को उसके आरोप से मुक्त भी करा सकता है। और प्रकॄति विरुद्ध अपराध जैसे बड़े मामलों में ऐसे किसी वकील को नियुक्त करना चाहिए जो कि ऐसे मामलों में पहले से ही पारंगत हो, और धारा 377 जैसे मामलों को उचित तरीके से सुलझा सकता हो। जिससे आपके केस को जीतने के अवसर और भी बढ़ सकते हैं।Section 377 IPC (IPC Section 377 in Hindi for offenses against nature)By Vanitha Kasniya PunRead In EngliDescription of sectiAccording to section 377 of the Indian penal codwhoever any man, womane,on 377shjabane,on 377shjab

जमानत के लिए डॉक्यूमेंट? जमानत के लिए जरुरी दस्तावेज ? By वनिता कासनियां पंजाब जमानत के लिए डॉक्यूमेंट (Jamanat Ke Liye Document), जमानत के लिए जरुरी दस्तावेज, कोई भी मनुष्य जन्म से अपराधी नहीं होता मनुष्य के जीवन में कभी कभी ऐसी परिस्थितियां बन जाती हैं कि उसको ऐसा करना पड़ता है या फिर कोई दुर्घटना और सहयोग से ऐसा कुछ हो जाता है कि उसको अपराध करना पड़ जाता है। जमानत के लिए क्या चाहिए।जमानत के लिए डॉक्यूमेंट (Jamanat Ke Liye Document)?जमानत के लिए डॉक्यूमेंटजमानत के लिए डॉक्यूमेंटअपराध करने के बाद उसके ऊपर आरोप सिद्ध होने पर उसको सजा दी जाती है जिस तरह का राज किया गया है हमारे संविधान में हर अपराध के लिए अलग-अलग तरह की सजा का प्रावधान है जब उस अपराधी का केस चलता है तो उसके लिए उसको एक वकील लेना पड़ता है या फिर उसके परिवार वाले कुछ किसके लिए एक वकील को हायर करते हैं।जब तक यह केस चलता है तब तक उसके परिवार वाले बहुत चिंतित रहते हैं और यह सोचते हैं कि अपराध किस परिस्थिति में हुआ होगा और कैसे हुआ होगा और तब तक उसको कारागार में रखा जाता है ऐसे में अपराधी की मानसिक स्थिति बहुत ही खराब हो जाती है।ऐसे में उनके परिवार वाले यह चाहते हैं कि जब तक किस का कोई निर्णय नहीं होता है उसके बीच में की जमानत के लिए एक याचिका दायर की जाती है और याचिका दायर होने पर जज के सामने तथ्य रखे जाते हैं।जिसके आधार पर जज उसकी याचिका मंजूर करता है या फिर निरस्त कर देता है जमानत के लिए उसके परिवार वालों को डाक्यूमेंट्स की जानकारी के लिए बार बार चक्कर लगाने पड़ते हैं सही से जानकारी नहीं मिलने पर उनको बहुत परेशानी होती है और भागदौड़ भी ज्यादा होती हैं।जमानत के लिए जरूरी डॉक्यूमेंटआधार कार्ड की फोटो कॉपीएक पासपोर्ट साइज फोटोयह जरूरी डाक्यूमेंट्स है जो आपको देने होते हैं और आगे की प्रक्रिया आपका वकील यदि आपने कर रखा है तो वह आगे का प्रोसेस करता है और यदि आपने वकील नहीं किया है तो आपको वकील से मिलना होगा और वकील को यह दस्तावेज देने होंगे।इन दस्तावेज के आधार पर वकील आप की जमानत की याचिका को दायर करता है और जमानत के लिए जो भी कागज कोर्ट में बनने होते हैं वह उसका प्रोसेस करता है।